कड़वी सच्चाई
नहीं फूटते
कुशल क्षेम के
अब अपनों से
आखर ढाई!
चला कहाँ से
और कहाँ पर
आ पहुँचा है आज जमाना,
अब तो प्रायः
खुद से खुद का
पड़े पूँछना पता ठिकानाय
कभी अपरचित
लगने लगती
अपनी ही ड्योढ़ी अँगनाई!
जेब गरम
होने पर होती
रिश्ते नातों में गरमाहट,
शायद यह
खुदगर्ज समय के
आने की
लगती है आहतय
हमने देखा
ऐन वक्त पर
साथ छोड़ देती परर्छाइं!
करने बैठें
यदि हम अपने
जीवनभर का लेखा जोखा,
गैरों से ज्यादा
अपनों से
खाया होगा हमने धोखाय
आपस के
मीठे रिश्तों की
अब यह है कड़वी सच्चाई!