कतई ज़रूरी नहीं कि जो भी मिला दरअसल-
वो मेरी पहली पसंद हो।
किसी ख़ास रौ में बहकर जो गीत लिखा हो-
उसका हर इक चुस्त बंद हो।
भागादौड़ी पहले बहुत मचाई, लेकिन-
ग़लत हो गए सभी नतीजे।
अलख जगाते फिरे, मजनुओं-फरहादों से-
नहीं किसी से कम हम रीझे।
जहाँ मिले अभिव्यक्ति समूची, मुझे आज तक-
मिला न कोई एक छंद वो।
शायद थी सामर्थ्य अधूरी-
रहा देखता अलग-अलग कर वस्तु व्यक्ति को,
क़ीमत मिले सभी बिक जाते-
पहचाना कब पैसे की इस परम शक्ति को?
क़िले जीतने की ख्वाहिश अब फौत हो गई-
हाथों में क्यूँकर कमंद हो?
जो भी मिला, जहाँ पर जैसा-
उसको उठकर गले लगाया बड़े जतन से,
दे न सका उनका मनचीता-
अदना-सा कवि, उन्हें नवाजा सिर्फ सुखन से।
बहुत ज़रूरी है कि फ़क़ीरी ओढ़-पहिन लूँ-
तन से बेहतर मन मलंग हो।
कतई ज़रूरी नहीं कि जो भी मिला दरअसल
वो मेरी पहली पसंद हो।