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कब तक / मनीष मूंदड़ा

एक अजीब-सी जगह है ये जि़ंदगी
अकसर जीतें हैं मरते हुए
साँसों को सीने में दबाए
जब जि़ंदा होते हैं हम
और
मरते हैं जि़ंदा रहने को
किसी भी तरह
जब सब कुछ ख़त्म हो
आता है अंतिम छोर
एक अजीब-सी जगह है ये जि़ंदगी
प्यार पढ़ लेते है
किताबें भर भर
प्यार क्या है महसूस नहीं कर पाते,
बरसों बरस बीत जाते हैं
बिना जिए... जी जाते हैं जि़ंदगी
एक अजीब-सी जगह है ये जि़ंदगी
संघर्ष कब तक?
प्रयत्न कब तक?
रोष क्यूँ कर?
सहन कब तक?
बिना विचार किए जी जाते हैं जि़ंदगी
एक अजीब-सी जगह है ये जि़ंदगी
हमारी-तुम्हारी ये छोटी-सी जि़ंदगी
क्यूँ लगती है इतनी लम्बी
अनबुझी-सी पहेली
है ना बड़ी अजीब-सी ये जि़ंदगी?