कभी तो कहा होगा तिनके ने नदी से --
ठहरो, सुस्ता ले, दो घडी
धूल ने हवा से -- रुको, अलसा लें, एक पल
कभी तो कहा होगा
चिड़िया ने पेड़ से --
मेरे साथ उड़ चलो
चाहा होगा पेड़ का मन उड़ने को
नदी का ठहरने को
हवा ने सोचा होगा रुक कर देखे एक बार
तभी तो
अपने थके पीले पड़े पत्तो को
छोड़ देता है पेड़
कहता उड़ जाओ
हवा दब जाती है धूल के वज़न के नीचे कई बहाने बनाकर
नदी अटकी हुई विराम ले लेती है
किनारों पर ठहरे हुए पानी में तिनकों के साथ
आखिर साथ की चाहना किसे नही होती
और
साथ का अर्थ सिर्फ़ संग होना ही नही .
ये जान लेना है कि
दूसरे का पूरा मन टटोल लेने के बाद मुट्ठी में जो आएगा
उस शून्य में
कितना अस्तित्व बचा होगा
जो खिलखिलाते उत्सव में बदल जाएगा ।