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कमरी / सूरदास

धनि धनि यह कामरी मोहन स्याम की ।
यहै ओढ़ि जात बन, यहै सेज कौ बसन, यहै निवारिनि मेहबूँद छाँह घाम की ।
याही ओट सहत सिसिर-सीत, याहीं गहने हरत, लै धरत ओट कोटि बाम की ।
यहै जाति-पाँति, परिपाटी यह सिखवत, सूरज प्रभु के यह सब बिसराम की ॥1॥


यह कमरी कमरी करि जानति ।
जाके जितनी बुद्धि हृदय मैं, सौ तितनौ अनुमानति ॥
या कमरी के एक रोम पर, वारी चीर पटंबर ।
सो कमरी तुम निंदति गोपी, जो तिहुँ लोक अडंबर ॥
कमरी कैं बल असुर सँहारे, कमरिहिं तैं सब भोग ।
जाति-पाँति कमरी सब मेरी, सूर सबै यह जोग ॥2॥