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कमल / दिलीप चित्रे

देह को जब कमल उमच आता है
किसी भी स्थिति में
अपन ख़ुद-ब-ख़ुद पद्मासन बने रहते हैं

और कमल उमचते ही
बुद्ध के इर्दगिर्द की पंखुड़ियाँ खुल जाती हैं
भीतर की शून्यता ही
बन जाती है मणि
वज्र प्रभांकित

फिर अपन जो करते हैं मुस्कान
वो मु़ड़ रही है भीतर या बाहर
इसका किसी को भी पता नहीं चलता

अथवा सुख-दुख का समद्विबाहु त्रिभुज
किस प्रमाणज्ञ की प्रज्ञा में
प्रथम प्रकट हुआ इसका भी।


अनुवाद : चन्द्रकांत देवताले