‘न’ से शुरू होकर
‘हाँ’ में ख़त्म होते
और अपनी पराजय पर पुलकित
सब व्यक्ति
मेरे ही
एक
इतिहास को
दोहराते हैं
चक्र भी वही—आदिम-
मिटना
मिटाना
और
मिटना ।
क्या इसे प्रेम कहूँ ?
क्या यह निवेदन है ?
या अपने को तुम्हारे ऊपर
लादना
अनेक अर्थों में ?
एक बोझ हूँ
अपने को ढोने में
असमर्थ
एक और को लेना ही
क्या उसे—
मेरे वाले को—
हल्का कर देना है ?
कविता कहाँ है ?
शाम के ‘धुआँ-धुआँ’
या हुस्न के ‘उदास-उदास’ होने में,
या फिर
‘दिल को कई कहानियाँ याद-सी आके रह’
जाने में ?
कविता कहाँ है ?
इन कुरमुरे चनों में ?
काफ़ी के प्याले से उड़ती हुई भाप में ?
या चम्मच की खड़कन की गूँज के मिटने में ?
कविता कहाँ है ?
कम-से-कम तुम में तो नहीं ।
क्योंकि
वहाँ जीवन है ।
रुँधती आवाज़,
अधमुँदी पलकें,
काँपता
सिहरता
वक्ष…
कविता में यह सब कहाँ…।
सिर्फ़
छाया की छाया की छाया ।