कविता धूप का गीत
जंगल की खुशबू ही नहीं
कविता पानी के पत्थरों का
दर्द भी है।
एक सुन्न चट्टान के नीचे
दब जाता है
जब दिन
कविता हथौड़े की तरह
पूरी ताकत के साथ
उसे तोड़ती है।
वह शब्दों के जंगल में
कुल्हाड़ी की आवाज़ है
फिर-फिर लौटती
शब्दों से टकराकर।
कविता जुलूस में भटकी
शब्दों की गुर्राहट है
वह भाषा की
नदी में तैरती
शब्दों की का़ग़जी नौका है
जिसे देखकर खुश होते हैं बच्चे
डूब जाने तक।