एक झील है मेरे मन में
हिलते भूरे मटमैले पानी वाली ।
वहाँ कोने पर
कुछ घास और लताएँ हैं
तल के कीचड़ से उठकर
पानी की सतह पर पसरी हुईं ।
वहीं कुछ जल-भौरे
लगातार चक्कर काटते रहते हैं
उद्विग्न,
कहीं नहीं रुकते हैं ।
वहीं, बस थोड़ी-सी
जगह है कविताओं की ।
शेष विस्तार पर तो
बहुत कुछ सरगर्मियाँ हैं
बाहर की दुनिया की
दूसरी सरगर्मियों जैसी ।