लो,
लिखी मैंने धूप
लिखी छाँव
लिखा चाँद पर बसा गाँव
सूरज पर पथराव
या रात के सहमे पाँव
लिखी सभ्यता की लहर
धर्मों का कहर
बहता हुआ खून
बेवजह जूनून
सब धोकर बहती नदी
कराहती एक सदी
तरेरती निगाहें
उठती उंगलियाँ
बेबाक प्रश्न
कल आज कल
भीतर बाहर
सच्चा झूठा
सब
उलीच कर लिख डाला
मैंने
अब सोचता हूँ
कविता
तुम्हें लिख पाऊंगा मैं
शायद!