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कहते थे ”तेरे युगल नयन ज्यों जलक्रीड़ा करती मछली / प्रेम नारायण 'पंकिल'

 
कहते थे ”तेरे युगल नयन ज्यों जलक्रीड़ा करती मछली।
विद्रुम मणि-दीप्त अधर, नितम्ब द्वय, पृथुल द्वीप वृषभानु लली।
स्मर-कलभ कटा टोपी वक्षोरुह नाभि यथा गम्भीर भॅंवर।
मम सुमुखि! विपुल प्रेमामृत-सागर-मयी रही हो सतत लहर”।
निक्षिप्त पुलक भुजदंड अंस मद-कल-करि सम वृन्दावन में।
विचरते कभीं श्रम हरते मेरा बैठ निकुंज बीच क्षण में।
आ जा, हे रसिकमौलि! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥130॥