कहते ”मंथर मृदु मलयानिल मघवा को सुलभ कहाँ सजनी।
रागारूण दीपक पर जल-जल मर जाता शलभ यहाँ सजनी।
मधु विटप-वृन्त मर-मर स्वर-विरहित होता यहाँ समीर नहीं।
सखि, वृन्दावन का धन्य जीव तानता मोक्ष का चीर नहीं ।
प्राणेश्वरि, अनुरागी-बिम्बाधर-रस-परिचय-वंचित वासव।
जानता मानता पहचानता न प्रणयी प्रिये! अपर आसव।“
आ जा मयूर मुकुटी! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥84॥