इतनी मोहलत कहाँ कि घुटनों से सिर उठाकर फ़लक को देख सको अपने तुकडे उठाओ दाँतो से ज़र्रा-ज़र्रा कुरेदते जाओ वक़्त बैठा हुआ है गर्दन पर तोड़ता जा रहा है टुकड़ों में ज़िन्दगी देके भी नहीं चुकते ज़िन्दगी के जो क़र्ज़ देने हों