Last modified on 22 अगस्त 2009, at 03:14

काँचघर / सरोज परमार

इस वैश्या ने
हर बार नागफनी उगाई है
और इंतज़ार की है
सोनजूही की फूलने की।
मनवंतरों को फलाँगता यह काल
इन पलों से चिपक सा गया है।
दर्द भरी हवा नीचे से ऊपर तक
डोल रही है।
नाज़ियों के यातना गृह-सा
यह काँचघर
जिसे के हर काँच में बिम्बित
हिटलरी एषनाओं की कवायद
हिरोशिमा के गर्भ की ऐंठन
जिन पर कई जोड़ी आँखें टँगी हैं।
सब कुछ ढाँप लेने को आतुर,
निरीहता से जूझती,
काँचघर पर पत्थर दे मारती हूँ।
धीमे-धीमे
मेरे और लोगों के बीच
एक अनंत मरुथल उग आता है।
तब से अब तक
खिलते फूलों के नुच जाने का
जलते सवालों के बुझ जाने का
किस्सों के टुकड़े जुड जाने का
सिलसिला जारी है।
यह काँचघर
जिसकी हर दीवार पर्दों से लैस है
जिसका हर कोना धूप से महफूज़ है
इसके मध्य बिछा सा
मेरा वैश्या मन
सोनजूही की कल्पना में कैद
नागफनी के काँटे भोग रहा है।