Last modified on 1 जुलाई 2010, at 13:37

काबुलीवाला–2 / वीरेन डंगवाल


एक बादल जो दरअसल एक नम दाढ़ी था
एक बारिश जो थी मेरा टपकता हुआ घर
एक ख्‍वाब
ऐसा ऊभ-चूभ कि चूता था
भौंहों तक से आंसू सरीखा
एक तलब
इतनी हसीन अपनी बेताबी में

एक फरेब
जानबूझकर कौर की तरह जिसे मुंह में डालते
दिल चूर-चूर हुआ
00