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काम्य / महेन्द्र भटनागर


ओ मेरे मन ! तुम आकांक्षाओं के भंडार बनो,
नव-नव स्वस्थमना इच्छाओं के रे आगार बनो !

जीवन में प्रतिपल मादकता हो, गति हो, सिहरन हो,
अंतर में जीने का नव-उत्साह भरा कंपन हो !

रुद्ध अचेतन कुण्ठित हो न कभी भावों की सरिता,
प्राणों की वेगवती बहती जाये जीवित कविता !

अनुभव हो न कभी जीवन में हृदय शिथिल होने का,
अवसर आये न कभी असमय संयम-बल खोने का !

भाग्य अधीन नहीं हो किंचित विस्तृत भावी का पथ
संघर्षों में ही बढ़े अथक प्रतिपल जीवन का रथ!
1944