समागत है काल अब बुझ
जाएगा यह दीप।
यही क्या कहना
कि होता इस समय तू एक
समीप!
जो अकेला रहा भरता रहा
तेरी उपस्थिति के बोध से
अपना चरम एकान्त क्यों न वह
निबते समय भी मौन
आवाहे वही आलोक
धीरज का परम निर्भ्रान्त?
वही हो : उसी में यह जन
नसन को बाँहें समेटे
उसी में पाहुन समागत
अंक भेंटे जाएँ मिल
लय-ताल।
-समागत है काल।
नयी दिल्ली, मई, 1981