Last modified on 31 मार्च 2017, at 13:57

काश / आभा पूर्वे

मेरी हथेलियों के दोने पर
तुम्हारे चेहरे का होना
लगा था
अंजुरी के जल पर
चाँद ही उतर आया हो
आकाश सूना हो गया था
अचानक ही
और रात का अन्धकार
तुम्हारा केश बनकर
मेरी हथेलियों से उपट
जमीन पर पसर गया था
जैसे धरती के किसी कोने से
हौले-हौले
यमुना के जमे जल का सोता
फूटकर फैल गया हो ।
हथेलियों में ही
अपना चेहरा छिपाए
तुमने कुछ कहा था
हवा की सिसकारी
उसकी कोमल छुवन
बर्फीली ठंड का एक साथ अहसास
काश
मैं आकाश पर
बहते सोतों पर
हवाओं पर
तुम्हारा नाम लिख पाता ।