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का कहें / कुमार वीरेन्द्र

गाय के लिए गवत गढ़ने
बेर ढलते निकलता क्या

साग खोंटने
पीछे लग जातीं बेटियाँ; गवत गढ़ता
रहता, वे साग खोंटती रहतीं, गढ़ना हो जाता, तब भी खोंटती रहतीं; आवाज़ देता, ‘'जल्दी
चलो, भाई; देखो किरिन कबकी डूब गई’', पर कहाँ सुननेवाली, फाँड़-भर खोंट नहीं लेतीं
चलने को तैयार न होतीं; उनके साग खोंटने तक, मेंड़ प बैठ, खैनी बनाते
इन्तज़ार करता; जब आतीं, सुकून से कहतीं, अब चलो, पापा
काम-भर हो गया; मैं बूझ जाता, फिर पड़ोस की
आजी, चाची या किसी भौजी ने कह
दिया होगा, बूँट का साग
है ही ऐसा

एक दिन कहा
‘देखो बेटा, एक-दो बार ठीक, बाक़ी
हरदम अच्छा नाहीं लगता; तब उनसे जो सुनी, आगे क्या कहता, लगा — अपने पिता के मन
को बहुत पहले पढ़ चुकी होती हैं बेटियाँ, लेकिन वे बेटियाँ हैं, जो प्रेम से, कोई दुई बोल बोले
फ़र्क़ नहीं कर पातीं अपने और पराए में; उनका कहा, भर रास्ते भीतर देर ले
उमड़ता-घुमड़ता रहा, पापा, मना करो तो कोई कहती है, हमारी
पोती नहीं है, कोई कहती है, हमारी बेटी नहीं है, होती
ऊ भी संगे जाती, खोंट लाती, बस दु मुट्ठी
दुई ही मुट्ठी, बचिया; अब तुम्हीं
बताओ, बताओ
पापा

हम का करें, कहें भी तो हम
का कहें, का कहें उनसे...!