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कितना सूनापन / नरेन्द्र दीपक

कितना सूनापन इस मेले में
चल मेरे मन कहीं अकेले में

भीड़ बहुत लेकिन कुछ अर्थ नहीं
जीने की इसमें सामर्थ नहीं
कैसे हँसी पिलाऊँ छन्दों को
लाषें तरस रही हैं कन्धों को
कोई अपना नज़र नहीं आता
भरी हाट में रेले-ठेले में

उम्र यहाँ पर जैसे अंध कुआँ
या कि मिलों से उठता हुआ धुआँ
दूर कहीं रे भीड़-भाड़ से चल
दुख-दर्दों के इस पहाड़ स ेचल
बिकती है जो पैसे-धेले में

दृष्टि जहाँ भी गई नज़र आये
संदर्भों से कटे हुए साये
हाय गले तक डूब गया हूँ मैं
महानगर से ऊब गया हूँ मैं

इधर कुआँ है और उधर खाई
कहाँ फँस गया अरे झमेले में;