रात दिन रटते हो तुम
बाबासाहेब का नाम
राजनीति से लेकर साहित्य
साहित्य से लेकर धर्म
धर्म से लेकर प्रजातंत्र
प्रजातंत्र से लेकर वोटबैंक
वोटबैंक से लेकर लूटतंत्र
आरक्षण से लेकर जन्मजात प्रतिभा
यहाँ तक कि
पूँजीवाद सामंतवाद के समर्थन में भी
ले लेते हो बाबासाहेब का नाम
पर क्या सच में हम
आत्मसात कर रहे हैं उन्हें
उनके मार्ग को
उनके रास्ते को
बस उलझे पड़े हैं
जातियों उपजातियों के संघर्ष में
तुम्हारे अहम की लड़ाईयों में
श्रेष्ठताबोध के अहसास के साथ
तमाम असमानताओं को
कालीन के नीचे छुपाते वक्त
कहीं नही होता चिंतक अम्बेड़कर
बस उसकी एक छाया का कोर पकड़
भ्रम पालते है कि हमने पा लिया
पूरा बाबासाहेब को
रात-दिन सोते-जागते
खाते-पीते टहलते ऊंघते
ख्याब में प्रमाद में
रखते है उसे
एक कीमती पेन की तरह
संभाल कर
खर्च नहीं करना चाहते उसे
जिंदगी की किताब में
किताबों का क्या है
पढ़ो ना पढ़ो
पर घर की शोभा तो बढ़ाती ही है ना?