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किया आँखें / कविता भट्ट

डॉ.कविता भट्ट 1 मैं ही बाँचूँगी पीर-अक्षर पिय, जो तेरे हिय। 2 नारी है देह आत्मा-नर न नारी मात्र चेतना। 3 देह तिलिस्म आत्मा तटस्थ द्रष्टा लिंग-भेद क्यों ? 4 दुस्साहस है नारी में पुरुष-सा किन्तु संस्कारी। 5 ममता फूटे नैनों और वक्षों से क्यों उत्पीड़न। 6 ममतामयी रजवाड़ों में भी तो चादर-सी थी। 7 कब पवित्र नारी के विषय में दृष्टि विचित्र। 8 नारी सुलगी राख में चिंगारी-सी मन ही मन। 9 हम न होंगे धिक्कारेगा तुमको सूना-सा द्वार। 10 डाकिया आँखें मन के खत भेजें प्रिय न पढ़े। -0- -०-