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कुँभनगर / त्रिलोचन

कहीं यज्ञ होता था, कहीं पाठ होता था,
कहीं दान होता था, कहीं कथा होती थी,
कहीं कुचाल देखकर हृदय काठ होता था,
कहीं अनीति देख कर मर्म व्यथा होती थी,
कहीं इष्ट की पूजा यथा-तथा होती थी,
कहीं लाभ के लिए लूट सी मची हुई थी,
कहीं ठगी छल बल से नई प्रथा होती थी,
कहीं किसी की सेज काँट की रची हुई थी,
कहीं सरलता भोलेपन में बची हुई थी,
कहीं किसी को कोई जन ललकार रहा था,
कहीं किसी की कोठी धन से हची हुई थी,
कहीं अभागा करमकटा झख मार रहा था,

कहीं विमान रवाते थे या घहराते थे,
कुंभ नगर के नभ में झंडे फहराते थे ।