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कुंवारी लड़कियां / लालित्य ललित

बड़ी उमर की
वे लड़किया जो अनब्याही हैं
तमाम अनुभवी नजरों से
घूरी जा रही हैं
पता नहीं शादी
क्यों नहीं करवा -
रहीं ?
कहीं कुछ इसमें कमी तो नहीं
चक्कर तो नहीं चल रहा
सुबह निकलती है
देर रात आती है
तमाम ऐसी सूक्तियां
उगलने में मशगूल है
गली-मोहल्ले की
ये मोहल्ले वालियां
कामकाजी लड़की
बिना किसी से कुछ कहे
माथे की शिकन
ऑफिस की थकन
और पुरुषों की -
फब्तियों की परवाह
किये बगै़र
घर लौट आती है
और यह सोचती है
क्या उसका स्त्री होना
अभिशाप है
क्यों वह लड़की हुई ?
- हर बार उसको ही
नापसंद किया गया क्यों ?
वह बाज़ार में ‘उत्पाद’ की
तरह
संभावित दूल्हों को दिखाई गई
देख लो जी
लड़की बड़ी गुणी है
खाना बढ़िया बनाती है
सुंदर है, मां पर गई है
शरमाती हुई मां
और शरम से गड़ जाती है
चार लाख का पैकेज है
मल्टीनेशनल फर्म में कन्फर्म हैं
गाड़ी आती है जी, लेने और -
छोड़ने
- जी हमारी तो कोई शर्त नहीं
पर आप की बेटी
नाज़ों से पली है
यह उमस, आज की भीड़
आप तो जानते ही हो !
लाचार बूढ़ा पिता बेबस था
जी.पी.एफ. के रूपयों पर
केंद्रित पिता ने
बात पक्की कर दी
और
पढ़ी-लिखी बिटिया
दूसरे घर को लिख दी
बिटिया सब जानती है
लालची नज़रों को और क़रीब से
पहचानती है
वह आज की लड़की है
भला हो ‘दूल्हे’ का
विचार मिल गए
समझो ‘सुर’ मिल गए
किसी और की कोई परवाह नहीं
याद आती है बिटिया को
मां के हाथ की रोटी
पिता का उलाहना
बेटी उठ जा, देर हो -
जायेगी
आज ऑफिस नहीं जाना
स्थितियां बदल गईं
आज गौरव उठा रहा था
- ‘‘शिल्पा, उठो देर हो जायेगी’’
शिल्पा की आंखें
डबडर्बा आईं ।