Last modified on 5 अक्टूबर 2021, at 22:39

कुकुरमुत्ते / अमृता सिन्हा

कोयले खदान के आस-पास
रहती हैं ये मेहनतकश औरतें,
करती हैं काम,
ढोती हैं,
ईँट-गारे, पत्थर,
कोयला, कभी लोहा-लक्कड़
ढोती हैं बोझा
होंठों पे
लिये मुस्कान

मेहनतकश औरतें
बाँधती हैं, बड़े सलीक़े से साड़ी अपनी
और बाँधती हैं
छौने को भी अपने
अपनी छाती से चिपका कर

बड़े सूक़ून से सोता है
दूधमुँहा बच्चा
माँ की देह से खींच कर ऊष्मा
धूल, मिट्टी, दुनियाँ की कर्कश आवाज़ों
से बेख़बर।

पैरों की फटी बिवाई
की पीर छुपाये
पत्थर-सी खुरदुरी हथेली
से टेरती जाती हैं
चेहरे पर जमी समय की मोटी गर्द

ढोतीजाती हैं माथे पर
जीवन के असंख्य बोझ

और
झाड़ती जाती हैं देह
और उसपर चिपकी, फँसी पड़ी,
हैवानों की कई जोड़ी आँखें
जो सिर्फ चिपकती ही नहीं
भेद जाती हैं
देह को।

ये वही औरतें हैं,
जिनकी देह में हम ढूँढते हैं कला,
मिलतीं हैं ये कभी बी॰प्रभा की पेंटिंग में
कभी हमें इनमें
दिखती है झलक
मोनालिसा की, तो कभी गजगामिनी की।

बड़ी बेफ़िक्री से मुस्कुराती हैं ये औरतें
दो साँवले होंठों के बीच फँसे सुफ़ेद झक्क़
मोती से दाँत
जैसे कई सफ़ेद कबूतर बैठें हों पंक्तिबद्ध

डरती हैं ये कि
सुन कर ज़ोरों की हँसी इनकी
कहीं ये सफ़ेद कबूतर
उड़ कर समा ना जायें नीले आसमान में।
शायद तभी

हँसती हैं ये हौले-हौले
काँधे पर लाल गमछा लिए।

खोलती हैं अपने खाने का डिब्बा
निकालती हैँ चाँद-सी गोल रोटियाँ
धरती हैं उसपर भरवाँ मिर्च के अचार
और कच्चे प्याज़।
तोड़ती हैं निवाले और देखती हैं,
एकटक, एक ही जगह, गड़ाती हुई नज़र धरती पर।

सोचती हैं-औरत और धरती
कच्ची गीली मिट्टी ही तो हैं!

गिरते ही बीज जहाँ
अँखुआ जाते हैं और उग
आते हैं बिरवे, पल्लवित होते हैं प्रेम
उगते हैं सपने।

और सोचती हैं ये भी
कि
ग़रीबों के सपने होते हैं बड़े बेमुरव्वत
फिसल कर आँखों से सीधे समा
जाते हैं
या तो
गोबर की ढेर में
या फिर
भीगी गीली मिट्टी के दलदल में
और तब
वहाँ उग आते हैं
अनगिन खरपतवार, जंगली घास
या फिर ढेरों कुकुरमुत्ते
पर वे भूलती नहीं
और ढूँढ कर
पहचान ही लेती हैं
अपने सपनों को
मुलायम कुकुरमुत्तों की शक्ल में।