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कुछ अजीब नहीं लगता / अमरजीत कौंके

इतना कुछ घटा
कि अब कुछ भी
अजीब नहीं लगता
इतना कुछ खोया
कि अब कुछ भी खोने का
एहसास नहीं रहा

जिन पौधों को
पानी डाल-डाल कर सींचा
जिनके सिर पर
हथेलियों से छाया की
उन्हीं के कांटों ने
चेहरा खरोंच डाला
जिन पर मन अभिमान करता
नहीं था थकता
वही हाथ खँजर बन
पीठ में घँस गए

काया जैसे बंजर हो गई
मन जैसे पत्थर हो गया

कुछ भी घट जाए
अब कुछ भी अजीब नहीं लगता।