का करूँ, का भरूँ
शोर की शराब में ही, डूब गया बीस साल
समय बना काल
हीं हीं हीं हिन् हिन् हिन्
दुलकी थी चाल
आजम-गढ़ की मट्टी
रीढ़ के सवाल
सुनते हैं देश ये बिराना हुआ नहीं
कहते हैं होंगें यहीं बिखरे
गुणसूत्र
यहीं जहाँ पसरा है दिव्य लवण मूत्र
सत्रह से तेईस, चौवालीस-तिहत्तर
बढ़ती जाती हुई
चौड़ाई टी०वी० की
मायापति अमरीका
लीला की भूमि हुआ भरत खण्ड
अण्ड बण्ड सण्ड
तो लघु से महत् महत्तम तक
माया जी महाठगिनी बैठीं
कौन भेद ले आएगा
सिद्ध, मुनी, बैरागी सब तो चले गए है फ़ारेन-वारेन
दीवालों पर लटक रहे हैं रँग अनन्त आभासी
शुरू हुए काले-सफ़ेद से
लाल-हरे-काले से बढ़ते-बढ़ते
हुए मैजेण्टा, स्यान, पीत और काले
नाले प्रवहित चारो ओर
दूर-दूर तक ओर न छोर
गणित में लिखे गए हैं रँग
नोट चले हैं तिरछी चाल
हरे-हरे टेढ़े से ब्याल
पर मुआफ़ करिए साहेबान !
दुई है इन सब के भी बीच
पक्की टुच्चई है
और पक्का है बवेला
लम्बा चौड़ा सा झमेला
यहाँ अभी तक प्रेम कर रहे लोग
हाड़-माँस के साथ
हाथ हैं जिनसे छूना होता है प्यारी माटी को
अलग-अलग भी प्यारी को माटी को
गणित रँग को मार दरेरा, एच वन एन वन को रन्दा दे
बादल को रँगने निकले हैं
आठ भुजाओं वाले श्री अठभुजा शुक्ल
मुद्राओं से हो सकता है सबकुछ भाई
पर अब भी, हाँ यहीं कहीं पर
देना-लेना-पाना-खोना-रोना-सोना-हंसना सबकुछ
बिन मुद्रा के भी करते हैं लोग
ऐसा इनका रोग
अच्छे दागों वाली दुनिया में
चौंक रहे श्रीमन्त-सन्त-घोंघाबसन्त
सफ़ाई पर हैं भौंक रहे
नाक की टेढ़ी चितवन
वाह रे श्रीमान
पर नहीं
बसेरा इधर नहीं है
कि फेरा पूरा करके लौट चलो खलिहान
कि माँ तो अब भी उपले थाप रही है
कि अब भी उसके अन्तरमन से झलक रही है नफ़रत
कि अब भी हर सम्भव हथियार बनाते लोग
कि अब भी भर देती है धान-पान की ख़ुशबू
कि अब भी बदल सकेगी दुनिया
अब भी रकत के आंसू, मांस की लेई
से ही बनता घर ।