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कुत्ते / संजय चतुर्वेदी


लम्‍बे और कठिन रास्‍तों पर
जब हम अकेले रह जाते हैं
कुत्‍ते कविताओं की तरह हमारा साथ देते हैं
बढ़ती सभ्‍यता में बढ़ती रही
हमारी नफरत, उनकी मुहब्‍बत
वे हमसे प्‍यार करते हैं
हमारे बावजूद

उनका नहीं हमसे कोई खून का रिश्‍ता
भौतिक पदार्थों का भी कोई खास नहीं
तमाम बीमारियों और जूठनखोर स्थितियों में भी
हमारी ऐश में भी, हमारी तैश में भी
हमारी निष्‍काम क्रूरताओं में भी
भयंकर निराशा के क्षणों में भी
वे नाए रखते हैं उस तार को
जब तक हताशा खा नहीं जाती उनके होश को

बंगलों की जंजीरों में कितने हैं ?
खेतों के, अलावों के मधुर सम्‍बन्‍ध भी बीत चुके हैं
उन्‍होंने हमारे लिए जंगल छोड़ दिए
अब वे कहां जाएं
फिसलती हुई गलित दुनिया में करोड़ों
खिंचती हुई पूंछों और कानों से कुंकुआते हुए
दो पाटों के बीच में
सड़कों पर रोटी की तरह फैले अभागे
जाते पर्यावरण में
हमें आज भी अपनाए हुए
हमें सहन करते हुए
ये वृक्षों की तरह नष्‍ट हो रहे हैं
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