वर्ष के अन्त में
वह कमरे के तमाम
पुराने कैलेन्डरों की जगह
रंग-बिरंग के नये वर्ष के
नये कैलेन्डर टांग दिया करता है
मगर
अपने जीवन के साथ जुड़े
असन्तोष
घृणा
उपेक्षा व क्षोभ के
किसी कैलेन्डर को नहीं हटा पाता
और सांस बन्द किए
असमर्थता
बेकारी
लाचारी के तमाम कैलेन्डरों को
दिन रात निहारता रहता
देर तक
इसमें कभी पत्नी के पिचके गालों के चित्र
कभी बच्चों की सूखी मुस्कान
'खों खों' पिता कि दर्दनाक आवाज
और कभी बनिये धोबी कपड़ेवाले...
ऐसे ही अनेक में एक
और एक में अनेक चेहरे उभरते रहते।