कोजागर
दीठियों की डोर-खिंचा
(उगते से) इंदु का आकासदीप-दोल चढ़ा जा रहा ।
गोरोचनी जोन्ह पिघली-सी
बालुका का तट, आह, चन्द्रकान्तमणि-सा पसीज-सा रहा ।
साथ हम
नख से विलेखते अदेखते से
मौन अलगाव के प्रथम का बढ़ा आ रहा ।
अरथ-उदास लोचनों में नदी का उजास
टूटता, अकास में, कपास-मेघ जा रहा ।
नीर हटता-सा
क्लिन्न तीर फटता-सा गिरा
किन्तु मूढ़ हियरा, तुझे क्या हुआ जा रहा ।