पता नहीं किस ज़ालिम डर से
उठा नहीं सूरज बिस्तर से ।
मुख पर हाथ धरे कोलाहल,
ढूँढ़ रहा इस जड़ता का हल ।
पक्षी व्याकुल बुरी ख़बर से,
उठा नहीं सूरज बिस्तर से ।
चूल्हा लेता हैं अँगड़ाई,
अभी गोद में आँच न आई ।
चूक हुई क्या पूरे घर से,
उठा नहीं सूरज बिस्तर से ।
तरस रहे पोथी में आखर,
गूँजे नहीं चेतना के स्वर ।
बन्द पड़े हैं खुले मदरसे,
उठा नहीं सूरज बिस्तर से ।