Last modified on 12 सितम्बर 2008, at 13:00

कोहरा / गिरिराज किराडू

यहाँ इतना कुहरा देखकर राहत हुई

आख़िर मुझे आदत कहाँ बहुत-से हरे को धूप में चमकता देखने की

पर ऐसे कुहरे की भी आदत कहाँ !


सर्द, सघन

रहस्य नहीं, दर्द जैसा

और सिहरन एक हरियल सीलन के नींद में बैठने की कल्पना से

तीन मिनट का काम पे जाने का समय सात -आठ मिनट का हो गया है

बीस हाथ की दूरी पर कमज़ोर बत्तियां

दो छोटी गाडियाँ हैं कि बस

या तुम्हारी आंखें

ऐसे नशे में भूलती हुई

जो कभी ठीक से हुआ नहीं, पता नहीं


दरख्त मटमैले हो ऐसे हिलते हैं

जैसे पृथ्वी पे नहीं, ख़याल में खड़े हों


इमारतें रास्ते पगडन्डियाँ समूचा नक्शा गायब


कुहरे में चलते हुए बहुत प्राचीन हो जाता है


(प्रथम प्रकाशनः वागर्थ,भारतीय भाषा परिषद,कोलकाता)