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क्या करूँगा / राकेश खंडेलवाल

प्रीत के बोल, अधूरे गीत गाकर क्या करूँगा

प्राण के प्याले भरी हैं भाव की मैंने सुधायें
वहन करता आ रहा हूँ ज़िन्दगी की मैं व्यथायें
रोज ही मधुघट ढुलकते, बूँद लेकिन मिल न पाती
साँस की अंगनाई में बाकी अभी अनगिन तृषायें

देव के आशीष भी जब बन नहीं वरदान पाये
साधना के दीप की लौ को जला कर क्या करूँगा
क्षुब्ध मन में प्यास खुद सावन उगाता आ रहा हो
आस्था के रिक्त प्यालों को उठा कर क्या करूँगा

भोर की अंगड़ाईयों से साँझ की हर इक थकान तक
इक अधूरी साध की परिणति यहाँ मैंने तलाशी
पर निराशा के कुहासे सिर्फ़ मेरे हाथ आये
मैं अमावस के नगर में ढूँढता था पूर्णमासी

जब मरुस्थल की हवाओं से घिरा मधुबन समूचा
रेत के टीले खड़ा मल्हार गाकर क्या करूँगा
नींद ने भी पा निमंत्रण रोज ही आँख चुराई
तो पलक पर एक भी सपना सजा कर क्या करूँगा

एक संशय के तिमिर की धुन्ध में लिपटा हुआ मैं
ढूँढता हूँ रोशनी की रश्मियों के ज्योतिरथ को
जो कुहासों से परे खिलता रहा, हो पारदर्शी
हर कदम भटका हुआ अब खोजता उस एक पथ को

जो कबीर ने जतन से ताक पर रख दी थी इक दिन
सोचता हूँ आज वो चादर उठा कर क्या करूँगा
छंद है हर एक टूटा, मात्रायें सब अधूरी
प्रति के बोलो अधूरे गीत गाकर क्या करूँगा

प्यार और अनुराग उगते थे जहाँ निशि-दिन गगन में
लग रहा दिगपाल ने खुद ही चुरा लीं वे दिशायें
आस की अनुभूतियाँ करवट जहाँ हर वक्त लेतीं
खो गई हैं काल के संग ज़िन्दगी की वे ऋचायें

घिस गई है हाथ की हर एक रेखा जबकि मेरे,
ज्योतिषी को हाथ फिर अपने दिखा कर क्या करूँगा
पढ़ न पाये नैन की भाषा मेरे मनमीत तुम भी
फिर कहानी कंठ से अपने सुना कर क्या करूँगा