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क्या करूं / गोबिन्द प्रसाद


भीतर जो अकेला है
उस मन का क्या करूँ
सन्नाटे-सा
      बरजता दिन-रात
अँधड़ उठाता
जो बन है, उस बन का क्या करूँ