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क्या गाऊँ / नरेन्द्र शर्मा

गाऊँ भी तो क्या गाऊँ?
मैं रो गा कर अब कब तक मन बहलाऊँ?
यह लाइलाज रोगी मन है,
यह क्षुद्र पात्र-सा जीवन है,
क्या मैं, मानव मैं इनमें सिमट समाऊँ?
इस क्षीण रुधिर की धारा का,
क्या बह सकना ही ध्येय बने,
धाराओं का गंगासागर—संगम-
समाज या—गेय बने?
बन क्षुद्र रहूँ या मैं विशाल बन जाऊँ?
बुन बुन उघेड़ता रहूँ सदा
इस धूप-छाँह की जाली को?
क्या ओठों पर लाऊँ हरदम
सब सब की जूठी प्याली को?
जाग्रत जीवित हो जिऊँ या कि मर जाऊँ?
है एक ओर इच्छाओं का
वासनाजनित छायान्धकार,
औ दूर दूसरी ओर दीखता
संयम का अवरुद्ध द्वार!
मैं श्रेय प्रेय में से किसको अपनाऊँ?