मैं जानता हूँ
फेरीवाले इस रास्ते क्यों नहीं आते
नहीं आते, बहुत दिनों से
मुझे मालूम है
छतों की मुण्डेरों पर क्यों नहीं बैठते पक्षी
नहीं बैठते, बहुत दिनों से।
जो लोग यहाँ चीज़ों का लेन-देन करते थे
अब दुपहर में दूर से ही लौट जाते हैं
उड़ जाते हैं पंछी भी।
सुनसान रास्ता गु़स्से से झुलस जाता है
क्यों झुलस जाते हैं रास्ते
अट्टालिकाएँ, चूना-सुर्की, खिड़की, कपाट
मुझे सब पता है।
मैं महसूस कर सकता हूँ
कि घरों के भीतर धधक रहा है ग़ुस्सा
कि सभी जान गए है एक-दूसरे की भावनाओं का कलुष
मैं सब महसूस कर पाता हूँ।
सभी अपनी-अपनी हिंसा के घर में विक्षुब्ध हैं आज
मैं यह भी महसूस करता हूँ।
जबकि मुझसे बहुत पहले महसूस कर चुके थे
वे फेरीवाले और पक्षियों का समाज!!
मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी