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ख़ून—ए—हसरत से तेरा रंग निखारा जाए / साग़र पालमपुरी

ख़ून—ए—हसरत से तेरा रंग निखारा जाए

ज़ुल्फ़—ए—हस्ती तुझे इस तरह सँवारा जाए


सुबह हुई शाम ढली और यूँ ही शब गुज़री

वक़्ते—रफ़्ता तुझे अब कैसे पुकारा जाए?


मौसम—ए—गुल हो फ़ज़ाओं में महक हो हर सू

फिर तसव्वुर में कोई नक़्श उभारा जाए


गुनहगारों को सज़ा देने चले हो लेकिन

देख लेना कोई मासूम न मारा जाए


शाम हो जाए तो मयखाने का दरवाज़ा खुले

फिर ग़म—ए—ज़ीस्त को शीशे में उतारा जाए


हम मुसाफ़िर हैं तो ये जग है सराये ‘सागर’!

क्यों न मिल—जुल के यहाँ वक्त गुज़ारा जाए?