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ख़्वाहिश / सुषमा गुप्ता

मैंने एक बार उसे छूने की इच्छा जाहिर की थी।
फिर न जाने क्या बात हुई मन गिर गया कहीं।
ठीक से याद नहीं पड़ता कहाँ।
ज़हन की धुंध में शायद कहीं कोई झटका लगा होगा
अचानक से और दूर छिटक गया होगा।
अब ढूँढ के करूँ भी क्या।
साबुत तो उसमें कुछ बचा न होगा

हल्की ठंड़क है साँस भी भारी-सी है।
जाने मौसमी धुआँ है या फिजां बदल गई

पैरों का यूँ सुन्न हो जाना
मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।
कुछ याद आने लगता है जो जमा देता है भीतर कुछ।
अपनी कमज़ोरियों को कौन याद करना चाहेगा भला।

किसी का जुड़ाव कितना सच्चा है
ये सिर्फ़ सादा चेहरे महसूस कर पाते हैं।
सुंदर चेहरे सिर्फ़ भ्रमित होने के लिए होते हैं।
इसलिए दाग अच्छे हैं।

वो तुम्हारे साथ वाला मन मेरानहीं था।
पुरानी डायरी के पीले पड़ गए पन्नों से नोचकर लाई थी
उसने ज़्यादा साथ न दिया। मर गया
नया कुछ जन्म लेगा कहीं
तो शायद कुछ हरे निशान मेरी आँखों से झाँकने लगें

 तुम उस जन्म ज़रूर मिलना।
वादा तो नहीं है बस ख्वाहिश भर है, बाकी जो हो सब ठीक है।

कोई विकल्प होता भी कहाँ है

सिवाय इसके कि जो घट रहा हो उसे घटते देखते रहें