नानी ने जाने से एक रोज़ पहले कहा-
सच बात तो यह है कि मुझे कभी
खाना पकाना नहीं आया ।
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उसकी मृत्युशैया के इर्द गिर्द जमा थे
कुनबे के बहुत से फ़र्द - ज़्यादातर औरतें ढेरों बच्चे -
सुनकर सब हँसने लगे
और हँसते रहे जब तक कि उस सामूहिक हँसी का उजाला
कोठरी से उसारे फिर आँगन में फैलता हुआ
दहलीज़ के रास्ते बाहर न आ गया
और कुछ देर तक बना रहा ।
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याददाश्त की धोखे भरी दूरबीन से
मुझे दिखती हैं नानी की अधमुँदी आँखें तीसरे पहर का वक़्त
होटों पर कत्थे की लकीरें और एक
जानी पहचानी रहस्यमय मुस्कान
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मामला जानने के लिए अन्दर आते कुछ हैरान और परेशान
मेरे मामू मेरे पिता
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रसोई से आ रहा था फर.फर धुआँ
और बड़ी फूफी की आवाज़ जो उस दिन रोज़े से थीं
अरी मुबीना ज़रा क़बूली में नमक चखकर बताना
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वे सब अब नदारद हैं
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मैंने एक उम्र गुज़ार दी लिखते
काटते मिटाते बनाते फाड़ते चिपकाते
जो लिबास पहनता हूँ लगता है आख़िरी लिबास है
लेटता हूँ तो कहने के लिए नहीं होता
कोई एक वाक्य
अन्धेरे में भी आकर नहीं जुटता एक बावला कुनबा
वह चमकीली हँसी वैसा शुद्ध उल्लासण