हम ठूँठ-से
गड़े हैं गहरे
अपने खालीपन में
लावारिस कई आवाज़ें
घूमती हैं भीतर हमारे
और हम अपग-अलग आवाज़ों में
भौंकते हैं
अलग-अलग दिशाओं की ओर मुँह किये
इस तरह
खाली आँख, खाली हाथ
खाली आत्मा
लिए-लिए फिरते हैं हम
या फिर काँच के बहुरंगी टुकड़ों से
बार-बार भरते हैं
खालीपन
और एक-एक टुकड़ा
आँखों पर चढ़ा
देखते हैं
चलते दृश्य
पर दृश्य पड़ा रहता है वहीं का वहीं
बँधी हुई भारी गाँठ-सा
साथ ही भीतर हमारे
कई रंग एक साथ
लगते हैं जलने-बुझने
अनुभवों की पटरी पर
लेटे हुए हम
खाली होते रहते निरंतर
हर बार आती है ट्रेन
और हमें कुचल
चली जाती है
पर भीतर सोया यात्री
जागता नहीं कभी