Last modified on 21 नवम्बर 2011, at 13:27

खूबसूरत कविता / विनोद पाराशर


मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
अभावों की कॆंची
कतर देती हॆ
मेरे आदर्शों के पंख.
कानों में-
गूंजती हॆं-
आतंकित आवाजें
न अजान,न शंख.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
भ्रष्टाचारी रावण
चुरा ले जाता हे
ईमानदारी की सीता.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
बेटा-
खींच लेता हॆ
हाथ से कलम
ऒर कहता हॆ
इस कागज पर बनाओ
शेर,भालू या चीता.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता
चुपके से-
गोदी में आकर
बॆठ जाती हॆ बिटिया
पूछती हॆ-
पापा!आज क्या लाये हो ?
सेब,केला या फिर पपीता.
ऒर-
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कॊई खूबसूरत कविता
पत्नी!
दिखाती हॆ-
अपनी निस्तेज आंखें
मुर्झाया चेहरा
मेरा फटा हुआ कोट
आटे का पीपा-एकदम रीता.
मॆं/जब भी
लिखना चाहता हूं
कोई खूबसूरत कविता.