मीलों फैले मरू में
कदम धँस धँस जाते
मंज़िल कभी पास नज़र आती
कभी दूर
देखती हूं मरु के तजुर्बे
और टटोलती हूं अपने सपने
देखती हूं हर कण में रची
महाकाव्य की चरम पीड़ा
झर झर करती रेत में
सदानीरा पाने की बेचैन चाह
लड़खड़ा जाती हूँ
अनबुझी प्यास से
धँस जाती हूं मरू मेँ भीतर तक
कि एक बादल उड़ता आता है
सिहर जाती हैं
मरु की बोलती आँखें
आतुर हो बगूले उड़ते हैं
ऊंचे और ऊंचे
बादल चला जाता है
मरु को देकर इंतज़ार
और मुझे देकर
मंजिल तक पहुँचने की
खूबसूरत वजह