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गंगा बहाओ / महेन्द्र भटनागर

आज ऊसर भूमि पर गंगा बहाओ !

उच्च दृढ़ पाषाण गिर-गिर कर चटकते,

रेत के कण नग्न धरती पर चमकते,

अग्नि की लहरें हवा में बह रही हैं;

रूप घन का शांतिमय जग को दिखाओ !

त्रस्त नत मानव प्रकम्पित पात से झर,

झुक गये सब आततायी के चरण पर,

थूक ठोकर नाश दुख निर्मम मरण पर;

आत्म-धन उत्सर्ग की ध्रुव लौ जगाओ !

बह चुकी हैं ख़ून की नदियाँ, बिरानी

भू हुई, सत् की असत् ने कुछ न मानी,

और फूटा भय-ग्रसित-रक्तिम-सबेरा,

सूर्य पर छाये हुए बादल हटाओ !

1950