Last modified on 23 अक्टूबर 2020, at 23:45

गमछा / अदनान कफ़ील दरवेश

पिता जब कभी शहर को जाते
माँ झट से अलमारी से गमछा निकालकर
पिता के कन्धों पर धर देती
जैसे अपनी शुभकामनाएँ लपेट कर दे रही हो
कि सकुशल घर लौट आना
मुन्हार होने से पहले।

जब माँ अपने यौवन में ही ब्याह कर आई थी पिता के घर
तब भी शायद उसने अपने सारे स्वप्नों को एक गमछे में लपेटकर
पिता को सौंप दिया था

पिता
जो दुनियादारी के कामों में अक्सर चूक जाते
गच्चा खा जाते
कई बार भूल जाते अपना चश्मा
अपनी क़लम
दुकान की चाबी और तमाम चीज़ें
शायद उसी तरह माँ के स्वप्नों की पोटली भी
कहीं खो आए
शहर जाते हुए किसी दिन।

माँ
जिसे मैंने टीवी और फिल्मों में दिखने वाली
पत्नियों की तरह व्यवहार करते हुए कभी नहीं देखा
कभी कुछ खुल कर माँगते-मनवाते नहीं देखा
माँ जो सिर्फ़ माँ ही थी
शायद पिता के लिए भी
कभी न पूछ सकी पिता से कि वे कहाँ उसके
स्वप्नों की पोटली छोड़ आए...

जब एक दिन ट्रेन पकड़ने के लिए घर से निकला
माँ ने मेरे
कन्धों पर भी गमछा डाल दिया
और मैंने सहसा अपने कन्धों पर काफी वज़न महसूस किया

जब स्टेशन पर अकेले किसी कोने में बैठा
ट्रेन का इन्तज़ार कर रहा था
कन्धे पर पड़े गमछे की तरफ मेरी नज़र गई
जिसका मुँह मेरी ही तरह लटका हुआ था
और मैंने महसूस किया माँ के हाथ का दबाव
जो वैसे का वैसा ही अब भी गमछे में लिपटा पड़ा था
माँ का विदा में उठा हाथ याद आया मुझे
और पिता का थका कंधा भी
जो अब गमछे के वज़न से भी अक्सर झुक जाता था...

गमछा जो अब पूरे रास्ते मेरा साथी बनने वाला था
मैंने उसपर हाथ फेरा
और उसे देखकर शुक्रिया अदा करने की मुद्रा में मुस्कुराया.

गाँव से हज़ारों मीलों दूर
इस महानगर में जब कभी बाहर धूप में निकलता हूँ
तो अपने उदास और कड़े दिनों के साथी
अपने गमछे को उठाता हूँ और उसे ओढ़ लेता हूँ
क्यूँकि मुझे यक़ीन है इस गमछे पर
इसके एक-एक रेशे पर
जिसमें मेरा ही नमक जज़्ब है !

और
सच कहूँ तो
एक पुरबिहा के लिए गमछा
महज़ एक कपड़े का टुकड़ा भर ही नहीं है
बल्कि उसके कन्धों पर बर्फ़ की तरह
जमा उसका समय भी है !

(रचनाकाल: 2016)

लीजिए, अब यह कविता बांग्ला भाषा में पढ़िए
 গামছা

পিতা যখনই শহরে বেরোতেন
মা আলনা থেকে গামছা নিয়ে
পিতার স্কন্ধের উপর ন্যস্ত করতেন
যেন শুভকামনাগুলি গামছায় মুড়ে দিচ্ছেন
- সব কাজ শেষে সুভালাভালি ফিরে এসো
গোধূলির অন্ধকার গাঢ় হ‌ওয়ার আগে।

যৌবনের প্রারম্ভে
মা যেদিন এই গৃহে এসেছিলেন বিবাহের পর
হয়তো সেদিন‌ই নিজের সমস্ত স্বপ্ন
গামছায় মুড়ে পিতার হাতে তুলে দিয়েছিলেন

পিতা
সাংসারিক কাজে বড়ো ভুলোমনা ছিলেন
প্রায়শই অনর্থ সৃষ্টি করতেন
কখনো ভুলে যেতেন নিজের চশমা,
কখনো কলম, দোকানের চাবি হারাতেন
কিংবা দরকারি আরো কিছু
এমনি করেই হয়তো মায়ের স্বপ্নের পুঁটুলি
হারিয়ে ফেলেছিলেন কোনোদিন
শহরে যাবার রাস্তায়

মা'কে
আমি টিভি বা ফিল্মের স্ত্রীদের মতো আচরণ করতে
কখনো জোর করে কিছু চাইতে
কিংবা জেদ করতে দেখিনি
মা তো ছিলেন কেবল মা
হয়তো পিতার কাছেও...
তাই কখনো জিজ্ঞাসা করতে পারেন নি
পিতা তার স্বপ্নের পুঁটুলিটা কোথায় হারিয়ে এসেছেন

পরবাসের ট্রেন ধরার জন্য
বাড়ি থেকে বেরোনোর আগে
মা যেদিন আমার কাঁধের উপরেও
গামছা ন্যস্ত করলেন
আমি সেদিন কাঁধের উপর সহসা
প্রবল ভারবোধ করেছিলাম
প্ল্যাটফর্মের উদার একাকীত্বে
ট্রেনের অপেক্ষায় বসে বসে
কাঁধের গামছার দিকে চোখ ফেরালাম
তার মুখ‌ও আমার মতোই শুকনো,ঝুঁকে আছে
মায়ের হাতের ভার গামছায় মোড়া
আমি অনুভব করতে পারলাম
যেমন ছিল তেমনই রয়েছে
বিদায়ের ক্ষণে মমতায় উদ্যত মায়ের হাত
ভেসে উঠলো চোখের সামনে
ভেসে উঠলো পিতার শ্রান্ত কাঁধ
গামছার ওজনেও যা আজকাল ঝুঁকে যায়...

গামছা
এখন আমার এই দীর্ঘ সফরের সঙ্গী হবে
আমি তার উপরে অনুরাগে শ্লথ হাত বোলালাম
ধন্যবাদ দেবার ঢঙে তার দিকে তাকিয়ে
আড়চোখে মুচকি হাসলাম
জন্মভূমি থেকে হাজারো মাইল দূর, এখন
শহরের আতত রৌদ্র মাথায় করে
যখন‌ই বেরোতে হয়
আমার উদাস ও কঠিন দিনের সাথী গামছাকে
আমি তুলে নিই, জড়াই
তাকে ধারণ করি, কেননা জানি
এই গামছার টানাপোড়েনের প্রতিটি সূতো
আমার‌ই রক্তের নুনে নিষিক্ত হয়ে আছে

আসল কথা হল
আমাদের মতো কোন পুরবিয়া মানুষের কাছে
গামছা মানে ছোটো এক থান
সস্তা কাপড়ের টুকরো নয়
গামছা আসলে প্রত্যেকের কাঁধের উপরে
বরফের মতো জমাট
তার নিজের সময়।

       (বাংলা রূপান্তর : শতঞ্জিৎ ঘোষ)