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गरदन / सुरेन्द्र स्निग्ध

हम कौन-कौन हैं, पहचानते ही हैं
हाज़िरी बना लीजिएगा
अपने मन की डेली हाज़िरी बही में
याद रखिएगा
वो साला
अपनी ही जात का प्रोफ़ेसर
बड़ा स्वाभिमानी बनता है
लिक्खाड़ है साला, लिक्खाड़
कविता लिखता है
किताब छपवाता है
समझता है नवाब का नाती
लाख कहने पर भी नहीं आया है
आपको ’रिसीव‘ करने
काट दीजिएगा साले की हाज़िरी

आपने कहा था
पढ़ा-लिखा है न
बना देते हैं फलाँ अकादमी का अध्यक्ष
भूल कर भी नहीं कीजिएगा ऐसा हुज़ूर
बनाना ही है तो
बना दीजिए फलाँ राजपूत प्रोफ़ेसर को
नाम भी लेगा आपका
और उस जाति में बनेगा आपका वोट बैंक

उस साले कविया को कुछ मत बनाइए
कल तक कहता था आपको गुण्डों का सरगना
हुज़ूर,
ध्यान मुझपर भी रखिएगा
जूनियर हैं तो क्या हुआ
यादवों में दूसरा है कौन
जो आता हो आपके पास
और शरीर से अलग कर गरदन को
बिछा देता हो
’रन वे‘ पर !