ज़ख़्म जब सूखने लगा और ख़ून ने एक
ग़ैरवाजिब चुप्पी अख़्तियार कर ली तो वे मेरे सिर पर
चाणक्य का अर्थशास्त्र तानकर खड़े हो गए
मोमबत्तियाँ जल रही थीं जलसे में
मोम कुछ दरारों में गिरकर शासन की आत्मकथा तक
पहुँच रहा था
जिसमें मुहावरों की बंजर जमीन थी या मोटी चमड़ी की आभा
चाहने भर की देर थी
मैं भी कुछ निकम्मी हड्डियों और अनाथ ख़ुशियों को
ठेले में भरकर
बांबियों के बीच से रास्ता बना सकता था
सलाम ठोंक सकता था
कवायद कर सकता था
खाकी फैसलों के सामने
लेकिन
मेरे जिस्म में एक खाली पेट और मवाली अहसास था
इससे पहले कि कोई बेसब्री का अनुवाद करे
चिडि़यों के आगे चालाकी के दाने बिखराए
मुझे उन हादसों में
उतरना था जिनके भीतर
ज़िन्दगी की साबुत
मुस्कराहटें उगती हैं
यह जानते हुए कि ज़ख़्म एक खुले मर्तबान
की तरह मैदान में रखा हुआ है
मैंने उन ख़ुदगर्ज़ हफ़ों के खिलाफ़ गवाही दी
जो रोज़मर्रा की तकलीफ़ों की
नगरपालिका की ओर धकेल रहे थे
वे उस वक़्त भी मेरे चौतरु हैं
उनकी गुर्राहट
कपड़ों की सलवटों में खो गई हैं
और मेरी नफ़रत मेरी बेचैनी सूखे ज़ख़्म की भाँति
सख़्त गाड़ी खुरदरी हो गई है !
('बलराम के हजारों नाम' से)