ओ हो, इस स्नेह ने तो बड़ा ग़जब ढाया है!
भीड़ वाली बस में चढ़ते-चढ़ते माँ उतरी।
बिना-हजामत बे-तरतीब रूखे बालों वाले
किशोर बेटे के मासूम-उदास मुख को सूंघा-चूमा।
पहले रुपये दे ही चुकी थी,
पर, कमर के नाड़े में से निकाल
गुड़ी-मुड़ी चीथरे के रूमाल का पल्ला खोलकर
बस, दो रुपये और दिये; कहती-
‘अब तो ठीक है न, बेटा!’
बस ने हार्न दिया-माँ चढ़ी,
पर फिर क्षणेक उतरी, हड़बड़ी में
जल्दी से रूमाल खोला,
शायद अपने इक्कीसवीं शताब्दी वाले भीतरी कम्पयूटर से गणना करके
एक अठन्नी और दे दी-
मन में, आगे के खर्चे की कतर-ब्यौंत करके।
प्राण-प्यारा माँ की ओर मौन देखता-सा खड़ा रहा।
मैला पाजामा पहने था,
फटा-मैली हरी हवाई रबड़ चप्पल थी पाँव में।
धूप कड़ी थी।
सजल आँख की कोरों पर
माँ की धुली-छनी आत्म-चाँदनी धूप में बिखर रही थी।
चढ़ गई, देखती रही बेटे को बस की सीढ़ियों पर खड़ी।
भर्र-भर्र, फर्-फर् करती बस आगे घूम गई
खिड़की से झाँकती-झाँकती-सी माँ, दूर से अब एक बिन्दु-मात्र,
भीड़ में से लम्बा-मौन हिलता अधूरा-सा कल्पतरू हाथ देती रही।
ओह, स्नेह ने ग़ज़ब ढा रखा है रे,
इस सृष्टि में।