एक गाय का चित्र खींचता हूँ। वह गली में रहती है, वहाँ जहाँ कचरे के ढेर हैं। दिन भर वहीँ मण्डराती है। तुमने भी तो देखा होगा उसे ? कचरा जल रहा होता है। धुएँ और आग में भी वह थूथुन डाल देती है, भोजन का कोई टुकड़ा बचाने के लिए. क्या-क्या नहीं खा लेती वह ! कागज़ और प्लास्टिक की पन्नियाँ — ये भी उसका भोजन हैं। और भी बहुत सारी अपथ्य वस्तुएँ। उसकी आँखों में आशा नहीं है। देह भूखी-सूखी है। तब भी वह जुटी रहती है अपने जीवन को कुछ और आगे खींचने की कोशिश में। एक गाय का चित्र खींचता हूँ।
१३ मार्च २००८