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गीत-3 / केदारनाथ अग्रवाल


नाव मेरी पुरइन के पात की,

कोमल है गात की,


व्याकुल है जैसे कि चातकी,

स्वाती के स्वाद की !


लाखों हैं लहरे आघात की,

पीड़ा है पातकी,


छाई अंधेरी है रात की--

भारी विषाद की ।


नाव खेयो पुरइन के पात की,

किरनों से प्रात की,


साहस की उंगली से बात की,

मीड़ों से नाद की ।