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गीत मसीहा / उर्मिल सत्यभूषण

सूली पर लटके मसीहा
गीत अपने हो गये हैं
वेदना संवेदना के गीत
अनगिन वो गये हैं।
पाप अत्याचार की जड़ पर
प्रबल प्रहार करते
शब्द तीखी धार वाले
बाण चुन-चुन वार करते
मारते संहारते भी अश्रुभाल
पिरो गये हैं
कड़कड़ाती शीत में निर्धन
ठिठुरते कांपते हैं
नेह की कंबली ओढ़ाकर
गीत उनको ढांपते हैं
उनकी ख़ातिर चाय की चुस्की
सरीखे हो गये हैं।
सत्य की खातिर हजारों
बार मरते और जीते
फांसियों को चूमते हैं-
ज़हर के प्याले भी पीते
किन्तु ये इन्सानियत के
दाग़ कितने धो गये हैं।
ये निराशा की नदी को
आस के सागर बने हैं
है हृदय नवनीत इनके किन्तु
गौरव से तने हैं।
भावना के जल से पाषाणों
की आँखें धो गये हैं।
राख में से जाने कैसे
एक चिनगी जाग जाती
मर गई संवेदनाएं सिर-
उठा कर चमचमाती
ऐसे लगता है हमारे
गीत स्वयंभू हो गये हैं।